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हिंदी का आदिकालीन साहित्य

प्रिय पाठकों आज के post में आपको आदि काल के साहित्य के बारे में detail से बताया जाएगा जिसमे सिद्ध साहित्य व जैन साहित्य सम्मिलित होगा। आदि काल की साहित्यिक रचनाओ के बारें में भी आपको पढ़ने मिलेगा । हिन्दी साहित्य की प्रथम रचना व हिन्दी का प्रथम कवि के बारे में भी आज के इस post में बताया जाएगा। यदि आपको मेरा पोस्ट जानकारी पूर्ण लगे तो कृपया Comment करके हमें जरूर बताएं ।

 

 

हिंदी का आदिकालीन साहित्य

हिंदी का आदिकालीन साहित्य

 

  हिंदी का आदिकालीन साहित्य

सिद्ध साहित्य

बौद्ध धर्म की दो शाखाओं हीनयान व महायान में महायान को वज्रयान भी कहते है। वज्रयानियों को ही सिद्ध कहा गया । सिद्धों ने बौद्ध धर्म के वज्रयान तत्त्व का प्रचार करने के लिए जो साहित्य जनभाषा में लिखा , वह हिन्दी के सिद्ध साहित्य की सीमा में आता है ।

राहुल सांकृत्यायन ने 84 सिद्धों के नामों का उल्लेख किया है। ये सिद्ध अपने नाम के पीछे ‘ पा’ जोड़ते थे। ‘ पा’ आदरार्थक पाद शब्द है। कुछ प्रमुख सिद्ध निम्नलिखित है : – सरहपा , लुइपा , कण्हपा , डोम्भिपा , कुक्करिपा, शबरपा , शान्तिपा , तन्तिपा, नागार्जुनतिलोपा , छत्रपा , मलिपा आदि। इनका व्यक्तित्व व कृतित्त्व संक्षेप में इस प्रकार है : –

क्र . संख्यासिद्ध साहित्य के महत्त्वपूर्ण बिन्दु
1.राहुल सांकृत्यायन ने 84 सिद्धो का वर्णन किया है।
2.सिद्ध लोग अपने नाम के अन्त में आदरार्थक ‘पा’ शब्द का प्रयोग करते थे।
3.साधनावस्था में निकली सिद्धों की वाणी चरियागीत / चर्चागीत कहलाती है।
4.सिद्धों की भाषा को ‘ संधा’ अथवा ‘ संध्या’ कहा गया है।
5.समय 769 ई0
6.ग्रंथों की संख्या -32
7.आचार्य द्विवेदी ने सिद्धों की वाणी को ‘ संजीवनी बुटी’ की संज्ञा दी।
यह भी पढे : – हिंदी साहित्य का इतिहास : आदिकाल

 

सरहपा

यह सरहपाद, सरोजवज्र , राहुल भद्र आदि कई नामों से प्रसिद्ध थे। जाति से ये ब्राह्मण थे। राहुल सांकृत्यायन के अनुसार इनका समय 769 ई0 माना है। इनके द्वारा रचित 32 ग्रन्थ है। ‘ दोहाकोष’ प्रसिद्ध है। इन्होंने पाखण्ड , आडम्बर आदि की विरोध किया तथा गुरुसेवा को महत्त्व दिया । सहाजिया सम्प्रदाय के प्रवर्तक थे। इनकी साहित्यिक भाषा पुरानी हिंदी थी। सिद्धों के प्रथम कवि व प्रथम साधक थे। अपभ्रंश में दोहा छंद का प्रयोग करने वाले प्रथम कवि थे।

” गुऊ की जै गहिला , गुरु बिन ज्ञान न पाइला रे भाइला “

शबरपा

इनका जन्म क्षत्रिय कुल में 780 ई. में हुआ। इनके गुरु सरहपा थे। शबरों का सा जीवन व्यतीत करने के कारण ये शबरपा कहलाए। ‘ चर्यापद’ इनकी प्रसिद्ध पुस्तक है। ये माया मोह के विरोधी थे। सहज जीवन पर बल देते थे। काया साधना के महत्त्व देने के कारण इन्होंने महत्त्वपूर्ण स्थान पाया। चार पंक्ति काव्य रचना करने वाले प्रथम कवि थे।

लुइपा

ये कायस्थ परिवार से सम्बन्ध रखते थे। इनके गुरु शबरपा थे। ये अवधूत ( तंत्र मंत्र साधना वाले) सिद्ध कवि माने जाते है। इनकी साधना का अत्यन्त प्रभाव था। इनकी वाणी से प्रभावित होकर उड़ीसा के राजा और मंत्री ने सिद्ध मार्ग का अनुसरण किया। इन्होंनें साहित्य रचना नहीं की लेकिन उत्तर पद दोहा कोश में प्रमाण स्वरूप दिए गए है। 84 सिद्धों में इनका स्थान सर्वोच्च है। इनकी कविताएँ रहस्य भावना प्रधान है।

उदाहरण : क्राआ तरुवर पंच विडाल , चंचल चीए पइठो काल ।

दिर करिअ महासुह परिमाण , लुई मरमई गुरु पूच्छि अजाण ।।

डोम्भिया

इनका जन्म क्षत्रिय वंश में 840 ई0 में हुआ। इनके गुरु विरुपा थे। सबसे ज्यादा रचनाएँ डोम्भिपा ने की, 8 4 सिद्धों मे सर्वाधिक लेखन कार्य किया। इनके द्वारा रचित ग्रन्थों की संख्या 72 बताई जाती है। 3 ग्रन्थ प्रमाणिक उपलब्ध है : – ‘ डोम्बिगीतिका , योगचर्या , अक्षरदिकोपदेश प्रमुख ग्रन्थ है। डोम्बी गीतिका में सिद्धों के नियम , कानून और मंत्र आदि का वर्णन है। योगसार के योगचर्या व अनुभूति पक्ष की साधना पद्धति वर्णित है। अक्षरदिकोपदेश में वर्णमाला के अक्षर क्रम में सांसारिक लोगो के लिए उपदेश वर्णित है। ( अक्षरों के क्रम का उपदेश दिया गया है। )

कण्हपा

कण्हपा कर्नाटक में 820 ई0 में ब्राह्मण वंश में पैदा हुए। इनके गुरु जालंधरपा थे । इनके कई शिष्य थे। इन्होंने सामान्य भाषा में दोहा में रचना की। सरहपा के मार्ग को आगे बढ़ाया और शास्त्रीय रुढ़ियों का खण्डन किया। इनके दोहे भी दोहा कोश में संकलित है।

कुक्कुरिपा

इनका जन्म पंजाब के आस- पास है। इनका जन्मकाल ठीक ठीक ज्ञात नही है। इनके गुरु चर्पटीया थे। इनके द्वारा लिखे गए ग्रन्थो की संख्या 16 बताई जाती है। तंत्र साधना में से वीभत्स रूप को हटाने का श्रेय इन्ही को जाता है। आलोचको का मानना है इनकी लिखित रचनाएँ मौखिक रूप से प्रचलित रही है।

हिंदी का आदिकालीन साहित्य

हिंदी का आदिकालीन साहित्य

हिंदी का आदिकालीन साहित्य :

जैन साहित्य

जिस प्रकार हिंदी के पूर्वी क्षेत्रों में सिद्धो ने बोद्ध धर्म के वज्रयान मत का प्रचार हिंदी कविता के माध्यम से किया उसी प्रकार पश्चिमी क्षेत्र में जैन साधुओ ने अपने मत का प्रचार हिंदी कविता के माध्यम से किया।

क्र . संख्यामहत्त्वपूर्ण बिन्दु
1.जैन साहित्य को रास साहित्य भी कहा जाता है।
2.इनके साहित्य का मुख्य कथानक ‘ जैन पुराण’ है।
3.महावीर स्वामी के अनुयायियों ने जैन साहित्य रचा।
4.इस धर्म में प्रमुख तत्त्व अहिंसा है
5.भारत में प्रचलित एकमात्र ‘ नास्तिक धर्म’ है।
6.जैन साहित्य चार रूपों और चार शैलियों में प्रचलित है : – आचार, चरित , रास , फागु
आचार : –
  1. आचरण, धर्म से संबंधित विधि
  2. निषेध नियमावली , उपदेशात्मक विषयवस्तु
चरित : –
  1. जैन तीर्थकर और महापुरुषों का जीवन इसमें वर्णित है
  2. गद्य व पद्य दोनो रूप में प्राप्त है।
रास : –
  1. रास शब्द संस्कृत साहित्य में ‘ क्रीड़ा व नृत्य’ से सम्बधित था।
  2. इसके संवाद गीतों मे बोले जाते है।
  3. जैन मंदिर में श्रावक ( भक्त) रात्रि काव्य में ताल देकर गीतिनाट्‌य खेलते है।
  4. इस पद्धति का प्रचार 14 वीं शताब्दी में हुआ था ।
  5. इसमें महापुरुषों का जीवन , परिपथ , संवाद आदि वार्णित है।
  6. आदिकालीन जैन साहित्य में ‘ भारतेश्वर बाहुबली रास’ को जैन साहित्य की रास परम्परा का प्रथम ग्रन्थ माना जाता है। इसकी रचना 1184 ई0 में शालिभद्र सूरि ने की थी।
फागु : –

उत्सव, गीत, विशेष उत्सव व अवसर पर जैन साधु साध्वी के द्वारा ऋषभदेव महावीर आदि तीर्थकरों के यश गाथा स्वरूप गाया जाता है।

जैन साहित्य की विशेषताएँ

  1. इन्होंने आध्यात्मिक उच्चता पर बल दिया है।
  2. मूर्ति पूजा विरोधी होने पर भी तीर्थकरों की मूर्ति पूजा प्रचलित है।
  3. ‘अहिंसा परमो धर्म’ का संदेश मुख्य लक्ष्य था।
  4. कर्मकांड व पशु बलि के विरोधी थे।

हिंदी का आदिकालीन जैन साहित्यिक रचनाएँ

श्रावकाचार

श्रावकाचार नामक काव्य की रचना देवसेन ने की। इसका रचनाकाल 933 ई० है। ये एक अच्छे कवि व उच्चकोटि के चिन्तक थे। अपभ्रंश मे इन्होने ‘दब्ब सहाव पयास’ नामक काव्य लिखा। अन्य रचनाएँ लघुनयन चक्र व दर्शनसार हैं। ये दोनों रचनाएँ काव्य की सीमा में नहीं आती।

भारतेश्वर बाहुबली रास

इस ग्रन्थ की रचना शालिभद्र सूरि ने की। यह जैन साहित्य की रास परम्परा का प्रथम ग्रन्थ है। इस ग्रन्थ में भारतेश्वर तथा बाहुबली की चरित्र वर्णन है। 205 छन्दों में रचित यह एक सुन्दर खण्डकाव्य है।

चन्दनबाला रास

इसकी रचना आसगु नामक कवि ने लगभग 1200 ई० के आस पास की । कवि ने भावसौन्दर्य का मनोहर वर्णन किया है। यह लघु कथानक पर आधारित है।

स्थूलिभद्र रास

इसकी रचना जिनधर्म सूरि ने 1209 ई० में की ।

रेवन्तगिरि रास

इसकी रचना विजयसेन सूरि ने की। इस काव्य में तीर्थकर नेमिनाथ की प्रतिमा तथा रेवन्तगिरि तीर्थ का वर्णन है। यात्रा तथा मूर्ति स्थापना की घटनाओं पर आधारित यह ‘ रास’ वस्तुकलात्मक सौन्दर्य का भी आकर्षण प्रस्तुत करता है।

नेमिनाथ रास

इस काव्य की रचना सुमति गणि ने 1213 ई० में की थी । 58 छन्दों की इस रचना में कवि ने नेमिनाथ का चरित्र सरस शैली में वर्णित किया है। नेमिनाथ के प्रसंग में श्रीकृष्ण का वर्णन इस काव्य का विषय है। रचना की भाषा अपभ्रंश से प्रभावित राजस्थानी हिन्दी है।

नाथ साहित्य

सिद्धों की वाममार्गी भोगप्रधान योगसाधना की प्रतिक्रिया के रूप में आदिकाल में नाथ पन्थियो की हठयोग साधना आरम्भ हुई। राहुल सांकृत्यायन नाथपन्थ को सिद्धों की परम्परा का ही विकसित रूप मानते हैं।

इस पन्त की चलाने वाले मत्येन्द्रनाथ ( मछन्दरनाथ) तथा गोरखनाथ माने गए हैं। डॉ o रामकुमार वर्मा नाथपन्थ के चरमोत्कर्ष का समय 12 वीं शताब्दी से 14 वीं शताब्दी के अन्त तक मानते है। डॉ० हजारी प्रसाद द्विवेदी के अनुसार नाथपन्थ या नाथ सम्प्रदाय के सिद्धमत , सिद्धमार्ग , योगमर्ग , योगसम्प्रदाय, अवधूतमत एवं अवधूत – सम्प्रदाय नाम भी प्रसिद्ध है। सिद्धगण नारी भोग में विश्वास करते थे, परन्तु नाथपन्थी उसके विरोधी थे। वामाचार्य के विरुद्ध इन्होंने पवित्र योगसाधना को आधार बनाया। इन्होंने सिद्धों की बहिर्वती साधना के विपरीत अन्तः साधना पर बल दिया। नाथों की संख्या 9 मानी जाती है जो निम्न प्रकार है : –

क्रम संख्यानाथो के नाम
1.आदिनाथ
2.मत्स्येंद्रनाथ
3.गोरखनाथ
4.चरपटनाथ
5.गृहिणीनाथ
6.ज्वालेन्द्र
7.चौरंगीनाथ
8.भृतृहरि
9.गोपीनाथ

पंतजलि के योगदर्शन का आधार लेकर इन्होंने हठयोग दर्शन को विकसित किया। इन्होंने षठचक्रभेदन, कुण्डलिनी जागरण तथा नाथबिन्दु की साधना को महत्वपूर्ण माना। हठयोग की जटिलता तथा साधना पद्धति में दुरुहन्ता के कारण इनकी साधना में गुरु का महत्त्व दिखाई देता है। नाथ पन्थ जीवन के प्रति सहज और सन्तुलित दृष्टि को अपनाने के साथ साथ सामाजिक एवं आध्यात्मिक अतिचारो और अतिवादों का विरोधी रहा। पश्चिम भारत में प्रचार प्रसार के कारण नाथपन्थियों की भाषा ब्रज, पंजाबी, राजस्थानी एवं हरियाणवी तत्त्वों से प्रभावित रही।

सामन्ती भोगमूलक समाज में योग तथा संयम का प्रचार किया। इन्होंने हिन्दु – मुस्लिम दोनो की सहभागिता पर बल दिया। गोरखनाथ नाथ साहित्य के आरम्भकर्ता माने जाते हैं। वे सिद्ध मत्येन्द्रनाथ के शिष्य थे। राहुल सांकृत्यायन के अनुसार – गोरखनाथ का समय 845 ई० माना जाता है। डॉ. हजारीप्रसाद उन्हें 9 वीं सदी का, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल 13 वीं सदी का तथा डॉ. पीताम्बर दत्त बड़थ्वाल उन्हें 11 वीं सदी का मानते है । गोरखनाथ के द्वारा रचित 40 रचनाएँ मानी जाती है परन्तु डॉ. पीताम्बर दत्त बडथ्वाल ने केवल 14 रचनाएँ ही उनके द्वारा रचित मानी हैं।

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इनकी 14 रचनाएँ इस प्रकार है : – सबदी, पद, प्राण संकली, सिवयादरसन, नरवैबोध, अभैमात्राजोग, आत्म – बोध पन्द्रहतिथि, सप्तवार, मछेन्द्रगोरखनाथ, रोमावली, ग्यानतिलक, ग्यानचौंतीसा एवं पंचपात्रा। डॉ. बड़थ्वाल दत्त ने ‘ गोरखबानी’ नाम से उनकी रचनाओं का एक संकलन भी सम्पादित किया है। गोरखनाथ ने हठयोग साधना का उपदेश दिया था। हठयोगियों के ‘ सिद्धसिद्धन्त पद्धति’ ग्रन्थ के अनुसार ‘ह’ का अर्थ है सूर्य तथा ‘ठ’ का अर्थ है – ‘चन्द्र’ । इन दोनो के योग को ही हठयोग कहते है।

गोरखनाथ ने ही षठचक्रो वाला योगमार्ग हिन्दी साहित्य में चलाया था। हठयोग में विश्वास करने वाला हठयोगी साधना द्वारा शरीर एवं मन को शुद्ध करके शून्य में समाधि लगाता था। नाथ साहित्य के विकास में जिन अन्य कवियों ने योग दिया, उनमे चौरंगीनाथ, गोपीचन्द, चुणकरनाथ , भरथरी, जालंधरीपाव आदि हैं। सभी हठयोगी योगी गोरखनाथ के भावों का अनुसरण करते थे।

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