संत शिरोमणि रविदास जी का जीवन परिचय
संत शिरोमणि रविदास जी का जन्म गणपति चन्द्र गुप्त के अनुसार 1388 ई0 में काशी में हुआ और डॉ. नगेन्द्र के अनुसार ( 1498 – 1598) माना जाता है। उनकी माता का नाम कर्मा देवी व पिता का नाम संतोष दास था रविदास जी के पिता चमड़े का व्यापार करते थे इसलिए उनके यहाँ जूते बनाये जाते थे।
रविदास जी की प्रारंभिक शिक्षा
बचपन में संत रविदास अपने गुरु शारदा नंद के पाठशाला गये जिनको बाद में कुछ उच्च जाति के लोगों द्वारा रोका किया गया था । हालाँकि गुरु शारदा नंद ने यह महसूस किया कि रविदास कोई सामान्य बालक न होकर एक ईश्वर के द्वारा भेजी गयी संतान है अत: गुरु शारदानंद ने रविदास को अपनी पाठशाला में दाखिला दिया और उनकी शिक्षा की शुरुआत हुयी .वो बहुत ही तेज और होनहार थे और अपने गुरु के सिखाने से ज्यादा प्राप्त करते थे।
वैवाहिक जीवन
इनका विवाह काफी कम उम्र में ही श्रीमती लोना देवी से कर दिया जिसके बाद रविदास को पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई जिसका नाम विजयदास पड़ा। शादी के बाद भी संत रविदास सांसारिक मोह की वजह से पूरी तरह से अपने पारिवारिक व्यवसाय के ऊपर ध्यान नहीं दे पा रहे थे। उनके इस व्यवहार से क्षुब्द होकर उनके पिता ने सांसारिक जीवन को निभाने के लिये बिना किसी मदद के उनको खुद से और पारिवारिक संपत्ति से अलग कर दिया। इस घटना के बाद रविदास अपने ही घर के पीछे रहने लगे और पूरी तरह से अपनी सामाजिक मामलों से जुड़ गये
सामाजिक समानता: संत रविदास सामाजिक समानता के प्रबल समर्थक थे और उन्होंने अपने समय में भारतीय समाज में प्रचलित जाति-आधारित भेदभाव की निंदा की थी। वह संपूर्ण मानवता की एकता में विश्वास करते थे और जाति व्यवस्था के खिलाफ उपदेश देते थे। रविदास जी ने लिखा है ‘रैदास जन्म के कारणे होता न कोई नीच ,नर कूं नीच कर डारि है ओछे करम की नीच। यानि कोई व्यक्ति जन्म से नीच नहीं होता है। व्यक्ति अपने कर्मो से नीच होता है .
सामुदायिक निर्माण: उन्होंने अपने अनुयायियों का एक समुदाय बनाने में भूमिका निभाई जो उनकी शिक्षाओं में विश्वास करते थे। उनके अनुयायी, जिन्हें “रविदासिया” के नाम से जाना जाता है, उनके सिद्धांतों और शिक्षाओं को कायम रखते हैं।
संत रविदास के जीवन की कुछ घटनाएँ
एक बार गुरु जी के कुछ विद्यार्थी और अनुयायी ने पवित्र नदी गंगा में स्नान के लिये पूछा तो उन्होंने ये कह कर मना किया कि उन्होंने पहले से ही अपने एक ग्राहक को जूता देने का वादा कर दिया है तो अब वही उनकी प्राथमिक जिम्मेदारी है। रविदास जी के एक विद्यार्थी ने उनसे दुबारा निवेदन किया तब उन्होंने कहा उनका मानना है कि “मन चंगा तो कठौती में गंगा” मतलब शरीर को आत्मा से पवित्र होने की जरुरत है ना कि किसी पवित्र नदी में नहाने से, अगर हमारी आत्मा और ह्रदय शुद्ध है तो हम पूरी तरह से पवित्र है चाहे हम घर में ही क्यों न नहाये।
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सिक्ख धर्म के लिये गुरु जी का योगदान
सिक्ख धर्मग्रंथ में उनके पद, भक्ति गीत, और दूसरे लेखन (40 पद) आदि दिये गये थे, गुरु ग्रंथ साहिब जो कि पाँचवें सिक्ख गुरु अर्जन देव द्वारा संकलित की गयी। सामान्यत: रविदास जी के अध्यापन के अनुयायी को रविदासीया कहा जाता है और रविदासीया के समूह को अध्यापन को रविदासीया पंथ कहा जाता है।
गुरु ग्रंथ साहिब में उनके द्वारा लिखा गया 40 पवित्र लेख है जो इस प्रकार है; “रागा-सिरी(1), गौरी(5), असा(6), गुजारी(1), सोरथ(7), धनसरी(3), जैतसारी(1), सुही(3), बिलावल(2), गौंड(2), रामकली(1), मारु(2), केदारा(1), भाईरऊ(1), बसंत(1), और मलहार(3)”।
गुरु रविदास जी के दोहे
ओछी जाति ओछो करम पुनि ओछो कसब हमारा।
रैदास कहै जाकै हदै, रहे रैन दिन राम।
सो भगता भगवंत सम, क्रोध न व्यापै काम।।
हरि-सा हीरा छांड कै, करै आन की आस।
ते नर जमपुर जाहिंगे, सत भाषै रविदास।।
रविदास जन्म के कारनै, होत न कोउ नीच
नकर कूं नीच करि डारी है, ओछे करम की कीच
जा देखे घिन उपजै, नरक कुंड मेँ बास ।
प्रेम भगति सों ऊधरे, प्रगटत जन रैदास ।।
रविदास’ जन्म के कारनै, होत न कोउ नीच।
नर कूँ नीच करि डारि है, ओछे करम की कीच।
“मन चंगा तो कठौती में गंगा”
अर्थ -यदि आपका मन पवित्र है तो साक्षात् ईश्वर आपके हृदय में निवास करते है।
जाति-जाति में जाति हैं, जो केतन के पात।
रैदास मनुष ना जुड़ सके जब तक जाति न जात।।
ब्राह्मण मत पूजिए जो होवे गुणहीन,
पूजिए चरण चंडाल के जो होने गुण प्रवीन।।
मन ही पूजा मन ही धूप,
मन ही सेऊं सहज स्वरूप।।
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