Skip to content

2.रासो साहित्य

प्रिय पाठको आज के blog में रासो साहित्य की पूरी जानकारी दी गई है। रासो साहित्य हिंदी साहित्य के आदिकाल का एक भाग है। भारतीय साहित्य का उद्धव ऋग्वेद माना जाता है। रासो साहित्य की सभी रचनाओं और स्चनाकारों के बारे में आज details से आपको बताया जाएगा । यदि आपको मेरे द्वारा दी गई जानकारी अच्छी लगे तो आप मुझे comment जरूर करें। चलिए अब हम रासो साहित्य के बारे में पढ़ते है।

रासो साहित्य (Raso sahitya)

रासो ‘ शब्द की उत्पत्ति

रासो शब्द की उत्पत्ति शब्द कोष मे रासो का अर्थ – गर्जन, तर्जन, लड़ाई बताया गया है। राजस्थान के राज्याश्रित चारण कवियों द्वारा लिखा गया साहित्य रासो साहित्य कहलाता है। जैन रासो काव्य धार्मिक दृष्टि से प्रधान थे परन्तु रासो ग्रन्थ वीरगाथापरक थे। रासो ग्रन्थों की विषयवस्तु का मूल सम्बन्ध राजाओँ के चरित्र तथा प्रशंसा से है। रासो काव्यों के रचयिता राजाओं के चरित्र का वर्णन करते थे।

‘ रासो ‘ शब्द की उत्पत्ति विभिन्न विद्वानो ने अलग – अलग जगह से मानी है :-

(1) गार्सा द तासी – राजसूय यज्ञ से

(2) रामचंद्र शुक्ल – रसायण / रसायन से

(3) श्यामल दास, काशी प्रसाद जसवाल – ‘ रहस्य ‘ से

(4) हजारी प्रसाद द्विवेदी, डाॅ. दशरथ शर्मा, चन्द्रबली पांडेय – ‘ रासक ‘ से ( सर्वमान्य मत )

(5) विध्येश्वरी पाठक , हर प्रसाद शास्त्री – ‘ राजयश ‘ से

(6) रामस्वरूप चतुर्वेदी – ‘ रासउ ‘ से

 

रासो काव्य वीर रस प्रधान है। रासो काव्य परम्परा के अन्तर्गत आने वाली ग्रन्थों की सूची : –

क्र . संख्याग्रंथो के नामरचनाकारों के नाम
1.खुमाण रासोदलपति विजय
2.बीसलदेव रासोनरपति नाल्ह
3.परमाल रासोजगनिक
4.हम्मीर रासोशाङ्गर्गधर
5.विजयपाल रासोनल्लसिंह
6.जयचंद प्रकाशभट्‌ट केदार
7.जय मयंक जस चंद्रिकामधुकर भट्ट
8.पृथ्वीराज रासोचंदबरदायी

और पढ़े : – हिंदी साहित्य के विकास के प्रमुख बिन्दु

 

 

रासो साहित्य

रासो साहित्य

 

 

रासो साहित्य की विशेषताएँ

(1) यह साहित्य मुख्यतया चारण कवियों द्वारा लिखा गया है।

(2) आश्रयदाता राजाओं के ऐश्वर्य एवं शौर्य का अतिशयोक्ति पूर्ण वर्णन

(3) सांमती जीवन की झलक देखने को मिलती है।

(4) युद्धों का सजीव चित्रण

(5) डिंगल (युद्ध) एवं पिंगल ( प्रेम ) शैलिया

(6) प्रबन्धात्मक काव्यों की रचना

(7) छंद वैविध्य

(8) अधिकांश रचनाएँ अर्द्ध प्रामाणिक

(9) संकुचित राष्ट्रीय भावना

(10) वीर एवं श्रृंगार रसों की प्रधानता

रासो साहित्य

रासो साहित्य

प्रमुख रासो ग्रंथ एवं उनके रचनाकार का परिचय

खुमाण रासो : –

रचनाकार : – दलपति विजय

रचनाकाल : – रामचंद्र शुक्ल एवं हजारी प्रसाद द्विवेदी के अनुसार 9 वीं शताब्दी (सर्वमान्य मत) मोतीलाल मेनारिया के अनुसार 17 वीं शताब्दी टिप्पणी : – ठाकुर शिवसिंह सेंगर इसे दलपति विजय की रचना न मानकर किसी अज्ञात भाट की रचना मानते है।

वर्ण्य विषय : –

(1) इसमें चित्तौड़ के शासक खुमाण एवं बगदाद के खलीफा अलमामू के मध्य हुये युद्ध का चित्रण है

(2) इसमें खुमाण द्वारा किये गये 24 युद्धों का उल्लेख है।

(3) शुक्ल जी के अनुसार खुमाण नाम के तीन शासक हुये –

( i ) खुमाण प्रथम वि० सं० 810 से 865

(ii ) खुमाण द्वितीय वि० सं० 870 से 900

(iii ) खुमाण तृतीय वि० सं० 965 – 990 ( इसमें खुमाण द्वितीय का चित्रण है । )

(4) खुमाण रासो में लगभग 5000 छंद है ।

(5) इसकी भाषा राजस्थानी हिंदी है।

(6) यह वीर रस प्रधान रचना है ।

(7) इसकी प्रति पूना संग्राहलय में सुरक्षित है।

(8) हजारी प्रसाद द्विवेदी के अनुसार इसकी चर्चा आदिकाल में नहीं होनी चाहिए।

(9) अगरचंद्र नाहटा के अनुसार खुमाण रासो में बप्पा रावल से लेकर राजसिंह तक वर्णन है।

बीसलदेव रासो

रचनाकार : – नरपति नाल्ह

रचनाकाल : – 1155 ई0 रामचंद्र शुक्ल के अनुसार ( सर्वमान्य मत )

बीसलदेव रासो हिंदी के आदिकाल की एक श्रेष्ठ काव्य कृति है। इसमें भोज परमार की पुत्री राजमती और अजमेर के चौहान राजा बीसलदेव तृतीय के विवाह , वियोग एवं पुनर्मिलन की कथा सरस शैली में प्रस्तुत की गई है। राजमती की बातों से रुष्ट होकर स्वाभिमानी राजा उड़ीसा चला जाता है। बारह वर्ष तक राजमती उसके विरह में दुःखी रहती है। यह राजभवन की दीवारों को कोसती हुई वन में रहने की कामना करती है। सामन्ती जीवन के प्रति गहरी अरुचि का सजीव चित्रण इस काव्य में मिलता है। बीसलदेव रासो 128 छन्दों की एक प्रेमपरक रचना है जिसमें मेघदूत व सन्देश रासक क़ी सन्देश परम्परा भी इसमें मिलती है। श्रृंगार के संयोग व वियोग पक्षों के अत्यन्त मार्मिक चित्र कवि ने प्रस्तुत किए है। कवि ने प्रकृति के रमणीय चित्रों से भी भाव – चित्रण को सौन्दर्य दिया है। बारह मासो तया ऋतुओं के प्राकृतिक चित्र संयोग और वियोग में उद्दीपन का काम करते है

वत बारह सो बहोतरा मझारि , जेठ बुदि नवमी बुधवारि ।

नाल्ह रसायण आरंभ करि , सारदा तूठी ब्रह्म कुमारि ॥

(1) शुक्ल जी ने बारह सो बहोतरा का अर्थ वि० सं० 1212 ग्रहण किया है।

(2) मोतीलाल मेनारिया – 16 वीं शताब्दी

(3) माता प्रसाद गुप्त – 14 वीं शताब्दी

(4) नवीनतम शोधों के अनुसार – 11 वीं शताब्दी

(5) डॉ० रामकुमार वर्मा – वि० सं० 1058

(6) मिश्र बन्धु – वि० सं० 1220

(7) गौरी शंकर हीरानंद ओझा – वि० सं० 1030 से 1056 के बीच

(8) लाला सीताराम – वि० सं० 1272

‘ बीसलदेव रासो ‘ का संपादन माता प्रसाद गुप्त ने किया जिसमें 128 छंद है।

काव्यरूप – मुक्तक

प्रधान रस – श्रृंगार ( संयोग एवं वियोग दोनो पक्षो का चित्रण )

नायक – बीसलदेव तृतीय ( विग्रहराज चतुर्थ) अजमेर का चौहान वंशीय शासक

नायिका – राजमती ( बीसलदेव की पत्नी एवं मालवा के भोज परमार की पुत्री )

बीसलदेव रासो का कथानक निम्नलिखत चार खंडो में विभक्त है : –

प्रथम खंड : – बीसलदेव एवं राजमती के विवाह का वर्णन

द्वितीय खंड :- राजमती के किसी कथन से रुष्ट होकर बीसलदेव का उड़ीसा जाना एवं 12 माह तक वहाँ रुकना।

तृतीय खंड : – राजमती के विरह का बारहमासा पद्धति में वर्णन एवं बीसलदेव का उड़ीसा से लौटना ।

चतुर्थ खंड : – भोज परमार द्वारा अपनी पुत्री को घर ले जाना एवं बीसलदेव द्वारा उसे अजमेर लाना ।

और पढ़ें :हिंदी साहित्य का इतिहास : आदिकाल

परमाल रासो

रचनाकार : – जगनिक रचनाकाल : – वि० सं० 1230

वर्ण्य विषय : –

इसमें परमर्दिदेव ( परमाल ) की सेना में शामिल दो वीर योद्धाओं आल्हा एवं ऊदल की वीरता का वर्णन है। परमर्दिदेव कलिंजर के शासक थे। आल्हा एवं ऊदल महोबा के रहने वाले थे। यह वीर रस प्रधान की सर्वश्रेष्ठ रचना है। आज भी इसे ग्रामीण क्षेत्रों में गाया जाता है। श्रोताओ का हृदय वीर रस से भर जाता है। सर्वप्रथम चार्ल्स इलियर ने इसका प्रकाशन ‘ आल्हा खण्ड ‘ नाम से कराया था जिसके आधार पर डॉ. श्यामसुन्दर दस ने परमाल रासो का पाठ निर्धारित कर उसे नागरी प्रचारिणी सभा में प्रकाशित करवाया। आचार्य हजारी प्रमाद। द्विवेदी इसकी अर्द्ध प्रमाणिकता को ही स्वीकार करते हैं। पृथ्वीराज रासो की तरह इसे भी अर्द्धप्रमाणिक कह सकते है।

विशेष तथ्य : –

(1) बीसलदेव रासो में वीर बनाफरों द्वारा किये गये 52 युद्धों का भी वर्णन है।

(2) वाटर फिल्ड ने इसके पदों का अंग्रेजी में अनुवाद किया।

(3) यह एक मुक्तक एवं गेय रचना है इसमें 23 अध्याय है , जिन्हें ‘ खण्ड ‘ कहा गया है।

(4) इसके पद वर्षा ऋतु में महोबा , बुंदेलखंड, बैसवाडा, के आसपास गये जाते है।

और पढ़े : Hindi ka aadikaaleen sahitya (हिंदी का आदिकालीन साहित्य

हम्मीर रासो

रचनाकार : – शाङ्गर्गधर रचनाकाल : – 1357 ई0

हम्मीर रासो में रणथम्मौर के शासक हम्मीर एवं अलाउद्दीन के युद्ध का वर्णन है। इसकी मूल रचना उपलब्ध नहीं है, आचार्य रामचंद्र शुक्ल को ‘प्राकृत पैंगलम्’ में शाङ्गर्गधर के कुछ पद मिले थे। इन पदों के आधार पर शुक्ल जी ने इसके अस्तित्व की कल्पना की। यह ग्रन्थ वीर रस के लिए विख्यात है। इसकी भाषा राजस्थानी, डिंगल, ओज से भरपूर काव्य मध्ययुगीन कवियों को प्रभावित किया है। राहुल सांकृत्यायन ने इन पदों को शाङ्गर्गधर के पद न मानकर जज्जल नामक कवि के पद माना है । आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने इस रचना से अपभ्रंश रचनाओं एवं रासो रचनाओ की समाप्ति मानी है।

“हम्मीर शब्द ‘अमीर’ का विकृत रूप है जो किसी पात्र का नाम न होकर एक विशेषण के रूप में प्रस्तुत होता रहता है।” यह कथन ( हजारी प्रसाद. दिवेदी ) द्वारा है।

विजयपाल रासो

रचनाकार : – नल्लसिंह भाट

रचनाकाल : – 1298 ई0 मिश्र बंधुओं के अनुसार , 16 वीं शताब्दी डॉ० नगेन्द्र के अनुसार

वर्ण्य विषय :-

विजय गढ़ ( करौली ) के शासन विजयपाल एवं पंग राजा के मध्य हुए युद्ध का वर्णन है। यह अप्रमाणिक रचना है।

कुल छंद – 42 भाषा अपभ्रंश

जयचंद्र प्रकाश : –

रचनाकार : – भट्ट केदार रचनाकाल : – अज्ञात

भट्ट केदार का समय विक्रमी संवत् 1225 के आसपास माना जाता है। कन्नौज के शासक जयचंद की वीरता का वर्णन है। यह रचना उपलब्ध नहीं है। दयालदास सिंधायच द्वारा चित ‘ राठौडा री ख्यात’ में इसका उल्लेख मिलता है।

जय मयंक जस चंद्रिका : –

रचनाकार : – मधुकर भट्ट रचनाकाल :- 1186 ई0

इसमें कन्नौज के शासक जयचंद की वीरता का वर्णन है। यह रचना उपलब्ध नहीं है , इसका उल्लेख भी दयालदास सिंघाचल द्वारा रचित ‘राठौड़ा री ख्यात’ में हुआ है।

पृथ्वीराज रासो :-

रचनाकार :- चंदबरदाई रचनाकाल : 1193 ई0

ऐसा माना जाता है कि पृथ्वीराज रासो के 61 सर्ग चंद्रबरदाई ने लिखे शेष आठ उनके पुत्र जल्हण ने लिखे।

काव्य रूप :- प्रबंधात्मक महाकाव्य

शैली – पिंगल, नायक – पृथ्वीराज चौहान ( धीरोदत्त ), नायिका – संयोगिता (मुग्धा श्रेणी की नायिका )

पृथ्वीराज रासो के निम्नलिखित चार रूपांतरण उपलब्ध है :-

वृहद रूपांतरण : – 16306 छंद तथा 69 समय इसका प्रकाशन नागरी प्रचारिणी सभा, काशी से हुआ है, इसकी हस्तलिखित प्रति उदयपुर संग्राहलय में सुरक्षित है।

मध्यम रूपांतरण : – 7000 छंद है। इसकी प्रतियाँ बीकानेर एवं अबोहर में सुरक्षित है ।

लघु रूपातरण : – 3500 छंद है, 19 सर्ग है। हस्तलिखित प्रति बीकानेर के संग्राहालय में सुरक्षित है ।

लघुतम रूपांतरण : – इसमें 1300 छंद है । इसी को डॉ० दशरथ शर्मा ने मूल पृथ्वीराज रासो माना है। इसका संपादन डॉo माता प्रसाद गुप्त ने किया है।

कर्नल जेम्स टॉड ने पृथ्वीराज के काव्य सौन्दर्य पर रीझकर इसके पदों का अंग्रेजी में अनुवाद किया तथा इसका प्रकाशन ‘ द रॉयल एरियाटिक सोसायटी ऑफ बंगाल ‘ से आरंभ करवाया । इसी बीच डॉ. बूलर को 1875 ई0 में जयानक कवि द्वारा रचित ‘ पृथ्वीराज विजय’ नामक रचना मिली, जिसमें संयोगिता हरण का चित्रण नहीं था। इसके आधार पर उन्होंने ‘ पृथ्वीराज रासो’ को अप्रमाणिक घोषित कर दिया। इ

‘पृथ्वीराज रासो ‘ संदर्भ में महत्वपूर्ण तथ्य

(1) पृथ्वीराज में 68 तरह के छंदो का प्रयोग हुआ है। मुख्य छंद – कवित्त, भुजंगी, चौपाई, दोहा, त्रारंक

(2) पृथ्वीराज रासो में दी गई घटनाओं एवं इतिहास में वर्णित घटनाओं की तिथियों में 80 से 90 वर्षों का अंतर मिलता है। इसके निराकरण के लिए मोहनलाल विष्णुलाल पंड्या ने ‘ अनंद संवत’ की कल्पना की। उनके अनुसार पृथ्वीराज रासो में दी गई तिथियाँ वि० सं० मे न होकर अनंद संवत् में है यदि अनंद संवत् के अनुसार गणना करें तो तिथियाँ इतिहा से मेल खा जाती है।

(3) नरोत्तम स्वामी ने पृथ्वीराज रासो को मुक्तक रचना माना है।

(4) हजारी प्रसाद द्विवेदी ने पृथ्वीराज रासो को शुक – शुकी संवाद में रचित माना है, उनके अनुसार जिन अंशो में शुक – शुकी संवाद मिलता है वे अंश प्रमाणिक है . तथा जिन अंशो में शुक – शुकी संवाद नहीं मिलता वे अंश अप्रमाणिक है।

(5) डॉ० नगेन्द्र ने इसे विशाल घटनाकोश कहा है।

(6) गुलाब राय ने इसे ‘ स्वाभाविक विकासशील महाकाव्य’ कहा है।

(7) श्यामसुदर दास और उदय नारायण तिवारी इसे ‘ विशाल वीर काव्य ‘ मानते है।

(8) पृथ्वीराज रासो की भाषा के व्याकरण पर सबसे पहले विचार बीम्स ने 1873 ई0 में प्रस्तुत किये।

(9) चंदबरदाई ने पृथ्वीराज रासो की भाषा को षड्भाषा कहा है । ( ब्रज, मागधी, संस्कृत, नाग, तुर्की )

 

और पढ़ें..https://hindigyansagar.online/1-कबीर-दास/ ‎

प्रिय दोस्तो आपको मेरे द्वारा ‘ रासो साहित्य ‘ के बारे में दी गई जानकारी कैसी लगी । आपको कितना समझ मे आया कृपया अपना commet करके जरूर बताए।

1 thought on “2.रासो साहित्य”

  1. Pingback: कबीर दास

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *