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प्रेम
प्रेम

प्रेम


प्रेम

प्रेम , प्रेम , प्रेम
ढाई अक्षर प्रेम का
क्या कोई समझ सका है
यह तो नासमझ है

कोई क्या करेगा मोल
यह तो है बड़ा अनमोल
समझना चाहेगा तो उलझ जाएगा
क्योंकि यह है गोलमोल

प्रेम वह पानी है
फैलाये जो इसको ज्ञानी है
समझ सके तो महाज्ञानी है
अपनाये जो वो सुखानि है

सदियो से पढ़ रहे है जो
समझ न सके इसे कोय
प्रेम वो पवित्र पेय
पिये जो ! वो नाम इसी का लेय

सबको वश में कर लेता है
पराये को अपना कर देता है
नफरत हटा कर प्यार भर देता है
ये सब प्रेम आसानी से कर देता है

मोम की बत्ती जलती है
जलती और पिघलती है
देखो इस मोमबत्ती को
लौ से कितना प्रेम करती है

भंवरो को फूलो से प्यार होता है
नदियों को सागर से प्यार होता है
अपने दिल में जरा झाँक कर देखो
तुम्हें भी किसी न किसी से प्यार होता है

और कविता पढ़ें : - नुमाईश



. . . डॉ o मानवती निगम



 

 

 

3 thoughts on “प्रेम”

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