
नुमाईश
मेरी गिनती होती कुछ तुच्छ चीजों में
निलामी होती मेरी बन्द पर्दों में
हर कोई अपना हक इस कदर जमाता
जैसे खुद की नहीं , सारी उनकी हूँ मैं
कोई मेरा पराया नहीं होता
कोई मेरा अपना नहीं होता
क्योकि मैं वो हूँ जिसकी कोई पहचान नही
मैं वो हूँ जिसका कोई नाम नहीं
नजरें कितनी भी हो लेकिन
देखा मुझे एक ही नजर से जाता है
जख्म बहुत है इस दिल में
मगर अब कुछ कहा नहीं जाता है
यूँ ही नहीं मैं खुदको बेचा करती हूँ
कोई दाम लगाता है कोई इल्जाम लगाता है
जिसका जहाँ मन करे वहाँ हाथ लगाता है
मेरी मुस्कान के पीछे कोई खुशी नहीं
क्योंकि , मैं वो हूँ जिसकी कोई पहचान नहीं
मैं वो हूँ जिसका कोई नाम नहीं ! !
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…. नवनीत सिंह
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