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दोस्त बनाने निकले

दोस्त, दोस्त शब्द से सब परिचित है। दोस्ती एक ऐसा रिश्ता है जो कि निस्वार्थ भाव से निभाया जाता है। कवि या शायर अपने भावों और विचारो को आम आदमी तक पहुँचाता है। अब तक आपने शौर्य , संघर्ष , प्रेम – मोहब्बत पर कविता या गज़ल पढ़ी होगी। आज आपके सामने “दोस्त बनाने निकले” पर तीन ग़ज़ल पेश कर रहे है । वस्तुतः हिंदी में उर्दू की खुशबू लिए खूबसूरत गहने की तरह होती है गज़ल ।

दोस्त बनाने निकले

  ग़ज़ल

ये दुनिया में भी कितने बेगाने निकले
इमदाद के एवज़ दिल जलाने निकले

दुनिया की नज़रों में जो क़ातिल हैं
वही दरगाह पे चादर को चढ़ाने निकले

कसम खायी थी साथ चलने की जो तुने
सब -के -सब इक झूठे फ़साने निकले

रकीब भी बने हबीब और लगाए उसे गले
यही इक सपना हम सजाने निकले

सभी ने यहाँ दुश्मन ही समझा है मुझे
और एक हम हैं जो दोस्त बनाने निकले।



…….. डॉ. प्रभात कुमार ‘ प्रभाकर ‘

दोस्त बनाने निकले

दोस्त बनाने निकले

Table of Contents

 

और कविता पढे : – एकान्त

2 . कविता – दोस्ती की यादें

गज़ल

संसार की अजीब है तस्वीर यारो
इसमें क्या ढूँढ़ते हो तक़दीर यारो

किस्मत यहाँ वैसे ही बिगड़ता है
जैसे पानी पर खींची हो लकीर यारी

आज उसी का सितारा बुलंदी पर है
जिसने बेच दिया अपना ज़मीर यारों

इंसानियत दाने – दाने को मोहताज़ है
जैसे फुटपाथ के लो फ़कीर यारो

चर्चा तक नहीं है आज किसी जुबां पे
कल जो क़त्ल हुआ राहगीर यारो

दुआओं और नसीहतों की बहुत बातें हुई
अब तो लाओ शमशीर यारो

कत्ल कर दो इन आस्तीन के सांपों को
ज़ुल्म कब तक सहोगे आख़िर चारी।
दोस्त बनाने निकले

 

ओर कविता पढ़े : – प्रेम
नुमाईश

ग़ज़ल

तेरी कुरबत को जो हम तड़पते रहे
हर शब ग़मे हिज्र में सिसकते रहे

जुगनू की रोशनी कबतक काम आती
आखिरकार अंधेरों में ही भटकते रहे

तेरे साथ क्योंकर परवाज़ भरता मैं
रकीब जो मेरे पंख कतरते रहे

चंद हंसी की सज़ा इस कदर मिली
कि ताउम्र गोश ए – आशियाँ में रोते रहे

जब भी तसव्वुर में आमद हुआ माज़ी का
आँखों में समंदर बनके उतरते रहे।

दर्द जख्म बने और ज़ख्म नासूर
इस क़दर हम आह पे आह भरते रहे।



…….. डॉ. प्रभात कुमार ‘ प्रभाकर ‘

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