कबीर दास का जीवन परिचय
भारतीय धर्म साधना के इतिहास में कबीर ऐसे महान विचार एवं प्रतिभाशाली महाकवि है इनका जन्म 1319 ई. में हुआ । कबीर सिकन्दर लोदी के समकालीन थे। कबीर अरबी भाषा का शब्द है जिसका अर्थ है – महान । कबीर के शिष्य का नाम धर्मदास है, इस्लाम में अल्लाह का 37 वाँ नाम ‘अल कबीर’ माना गया है। कबीर के जन्म का समय विभिन्न विद्वानो के अनुसार अलग अलग है।
क्र . सं . | विद्वानों के नाम | समय |
---|---|---|
1. | भंडारकर, मेकालिक, माता प्रसाद गुप्त के अनुसार | 1319 से 1518 ई० |
2. | रामचंद्र शुक्ल के अनुसार | 1399 ई० |
3. | बील | 1990 ई० |
4. | हंटर | 1300 – 1420 ई० |
5. | बेसकट तथा स्मिथ | 1440 – 1518 ई० |
6. | श्यामसुंदर दास | 1399 – 1518 ई० |
7. | ईश्वरी प्रसाद | 15 वीं शताब्दी |
कबीर दास के जन्म स्थान से संबंधित मत
(1) काशी में जन्म मानने वाले विद्वान :- श्यामसुंदर दास, आचार्य परशुराम चतुर्वेदी, प्रभाकर माचवे, कबीर के अत: साक्ष्य ” काशी में हम प्रगर भये, रामानंद चेताये ।”
(2) मगहर मानने वाले विद्वान : – पीतांबर दत्त बड़थ्वाल, डॉ. रामकुमार वर्मा, डॉ. त्रिगुणावत, सरनाम सिंह शर्मा, रामजीलाल सहाय
(3) पूर्वी पंजाब : – भोलानाथ तिवारी
(4) मिथिला :- सुभद्रा झा
(5) आजमगढ़ : – चंद्रबली पांडेय
कबीर के जम्म एवं निधन से सम्बन्धित पद
(1) चौदह सौ पचपन साल गये, चंद्रवार इक ठाठ भये।
जेठ सुदी बरसायत को, पूरणमासी प्रगट भये ॥ ( कबीर चरित्र बोध में मिलता है )
(2) संवत पंद्रह सौ पचहत्तरा कियो मगहर को गौन ।
माद्य सुदी एकादसी, रल्यों पौंन में पौन ॥ ( भक्तमाल की टीका में मिलता है)
गुरु का नाम : –
- हिंदूओं एवं कबीर के अनुसार – रामानद
- मुसलमानों के अनुसार – शेख तकी
कबीर की पत्नी का नाम लोई तथा पुत्र व पुत्री का नाम कमाल व कमाली था। इनका प्रारम्भिक जीवन काशी व अन्तिम जीवन मगहर में बीता। निरक्षर होने के बाबजूद भी कबीर बडे – बडे दार्शनिकों, विद्वानों, के कथन को कागज की लेखी कहकर ठुकरा देते थे। तार्किकता के क्षेत्र में अत्यन्त शुष्क, हृदयहीन, तीक्ष्ण प्रतीत होने वाले कबीर भाक्ति की भावधारा में बहते समय सबसे आगे दिखाई देते है। य
“मसि कागद छूयो नहीं कलम गह्यौ नहीं हाथ।”
कबीर दास की रचनाएँ
क्र . सं . | रचनाएँ |
---|---|
(1) | अगाध मंडल |
(2) | अक्षर खंड की रमैनी |
(3) | कबीर की बानी |
(4) | रेखता |
(5) | शब्दावली अनुराग सागर |
(6) | कबीर की साखी |
(7) | अक्षर भेद की रमैनी |
(8) | ब्रह्म निरूपण |
(9) | विचारमाला |
(10) | हंस मुक्तावली |
(11) | अमर मूल |
(12) | उग्र गीता |
(13) | कबीर गोरख गोष्ठी |
(14) | मुहम्मद बोध |
(15) | विवेक सागर |
(16) | ज्ञान सागर |
कबीर दास की भाषा के संदर्भ में आलोचको के मत : –
(1) ” कबीर की भाषा सधुक्कड़ी अर्थात राजस्थानी, पंजाबी मिली खड़ी बोली है, पर रमैनी और सबद में गाने के पद है जिनमें काव्य की ब्रजभाषा और कहीं- कहीं पूरबी बोली का व्यवहार है। ” ——– आचार्य रामचंद्र शुक्ल
(2) ” भाषा पर कबीर का जबरदस्त अधिकार था। वे वाणी के डिक्टेटर थे। जिस बात को उन्होंने जिस रूप में प्रकट करना चाहा उसी रूप में भाषा से कहलवा दिया। बन पड़ा तो सीधे – सीधे नही तो दरेरा देकर।” ———– हजारी प्रसाद द्विवेदी
(3) ” कबीर हमारी भाषा के सर्वश्रेष्ठ रहस्यवादी कवि है।” ———- डॉ. गोविंद त्रिगुणायत
(4) ” कबीर की भाषा संतभाषा है, इसे हिमाचल के चंबा से लेकर महाराष्ट्र , सौराष्ट्र , बंगाल तक समझा जा सकता है। इसमें खडी का गहरा पुट होता था । भोजपुरी, ब्रज और राजस्थानी का भी उस पर प्रभाव था।” ——— डॉ. बच्चन सिंह
इन्हें भी पढे : – – हिंदी का आदिकालीन साहित्य
कविता पढे : – माँ सिर्फ तुम
(5) ” कबीर अवधी के प्रथम संत कवि है ।” ——— बाबूराम सक्सेना
(6) ” कबीर की भाषा अधिकांशतः बनारस की बोली है।” ———– उदय नारायण तिवारी
(7) ” कबीर ग्रंथावली की भाषा में पंजाबीयन अधिक है।” ———– डॉ. रामकुमार वर्मा
(8) ” कबीर की भाषा पंचमेल खिचड़ी है जिसमें ब्रज, अवधी, पंजाबी, अरबी, फारसी के शब्दों का मिश्रण है।” ——— श्यामसुंदर दास
(9) “कबीर की भाषा ब्रज एवं खड़ी बोली के शब्दों का मिश्रण है।” ——— सरनाम सिंह शर्मा

कबीर दास
कबीर की रचनाओं का संकलन ‘ बीजक’ में है। संकलनकर्ता धर्मदास है। संकलन का समय – 1464 ई0 है।
बीजक के तीन भाग है : – (1) साखी (2) सबद (3) रमैनी
(1) साखी : – 59 अंग है ( उपदेश ) सांप्रदायिक शिक्षाएं है भाषा सधुक्कडी ( राजस्थानी खडी बोला + पंजाबी )
(2) सबद :- 23 अंग है माया, ब्रह्य, जीव आदि से संबंधित दार्शनिक विचार भाषा ब्रज + पूरबी बोली
(3) रमैनी :- 47 अंग है चौपाई + दोहा छंद ( बीजक का सबसे महत्वपूर्ण भाग है । ) भक्ति संबंधी पद ज्यादा है । भाषा ब्रज + पूरबी बोली है।
कबीर की विचारधारा को मुख्यत : दो पक्षों में बाँटा जा सकता है। (1) सैद्धान्तिक (2) व्यावहारिक
सैद्धान्तिक दृष्टि से कबीर को किसी एक मत से सम्बन्धित नही किया जा सकता। उन्होंने अपने गुरु रामानन्द से रामभक्ति का मन्त्र प्राप्त किया था। उनके राम ‘ दुष्ट दलन रघुनाथ’ नहीं थे। राम से उनका अभिप्राय निर्गुण राम ( ईश्वर) से था उनके शब्दों में
” दशरथ सुत तिहुँ लोक बखाना, राम नाम का मरम है आना।”
उन्होंने राम को निर्गुण रूप में स्वीकार किया है, तथा निर्गुण राम की उपासना का संदेश देते है ‘ निर्गुण राम जपहुँ रे भाई !’ उनकी राम भावना ब्रह्य , भावना से सर्वथा मिलती है। उनके राम निर्गुण राम के ही पर्यायवाची है। ब्रह्य, जीव, जगत, माया आदि तत्वो का निरूपण उन्होने भारतीय अद्वैतवाद के अनुसार किया है। उनके अनुसार जगत् में जो कुछ भी है वह ब्रह्य ही है । अन्त में सब ब्रह्म में ही विलीन हो जाता है।
“पाणी ही ते हिम भया, हिम है गया बिलाय । जो कुछ था सोई भया, अब कुछ कहा न जाई ॥”
कबीर भक्त थे। भक्ति के प्रमार के क्रम में ही उन्होंने सामाजिक रूढ़ियों अन्धविश्वास, मूर्तिपूजा, हिंसा, माया, जाति – पाँत, छुआ छूत आदि का उग्र विरोध किया। कबीर की अखण्डता भक्ति और मानवतावादी प्रसंगो में आत्मवया का भी रूप लेती दिखती है। कबीर की सहज साधना पर कई धर्म दर्शनो के उदार तत्वी का प्रभाव था। ऐसे में वैष्णव भक्ति के प्रपत्ति वाद तथा समर्पण के आग्रह के कारण कबीर ईश्वर के सामने अपनी निरीह को उद् घाटित करते दिखे।
कबीर कूता राम का मोतिया मेरा नऊ। गले राम की जेवड़ी जित खेंचे उत जाउँ ॥
कबीर ने हठयोग एवं कुण्डलिनी जागरण को सिद्धो, नाथों से लिया । कबीर ने सिद्धों के पंचम कारों ( मुद्रा, मदिरा, मैथुन, मत्स्प, मांस ) के आध्यात्मिक अर्थ लिए। मुद्रा का अर्थ ज्ञान , मदिरा का आध्यात्मिक जागरण, मैथुन का कुण्डलिनी जागरण व महा कुण्डलनी से मिलन, मत्स्य का कुण्डलिनी की गति व मांस का विषय वासनाओं से अर्थ लिया। सिद्धो, नाथो ने जिस प्रकार रुढ़ियों व शास्त्रीय पाण्डित्य का विरोध किया कबीर भी विरोध करते दिखे। जिस प्रकार सिद्धों ने अपनी साधना में गुरु की महत्ता पर बल दिया कबीर भी सद् गुरु को ईश्वर से बढ़कर मानते है। सिद्धों , नाथों ने जिस प्रकार हठयोग साधना पर बल दिया । कबीर द्वारा नाद बिन्दु की साधना षठचक्रभेदन का प्रभाव दिखाई देता है। सिद्धों, नाथों ने तीनों नाडियो इड़ा, पिंगला व सुषुम्ना को ललना, रसना व अवघूतिका नाम दिया जबकि कबीर ने इन्हें गंगा, जमुना, सरस्वती नाम दिया। कवि के रूप में भी कबीर का महत्व कम नहीं है। यद्यपि वे मूलतः भक्त, विचारक एवं समाज सुधारक थे, किन्तु उन्होंने जो कुछ अनुभव एवं चिन्तन किया उसे कविता के माध्यम से प्रस्तुत कर दिया गया तथा समाज सुधार का कार्य की अपनी काव्यमय उक्तियों के माध्यम से किया। वे शुष्क से शुष्क तथ्य को भी अपनी कल्पना शक्ति के बल पर अत्यन्त आकर्षक रूप प्रदान कर देते थे। अस्तु कबीर के पास न केवल उदात्त विचार, पवित्र भावनाएँ एवं गम्भीर अनुभूतियाँ थी बल्कि उनमें कल्पना की वह शक्ति थी जिसके बल पर वे अपने विचार भाव अनुभूति को रूपान्तरित करते हुए उसकी शक्ति को पूर्णतः उद् दीप्त कर सके। अत: कबीर का काव्य एक महान व्यक्ति के महान् विचारों एवं भावों की सफल अभिव्यक्ति है। उनका काव्य शन्ति प्रदान करता है। उनकी शिक्षाएँ आज भी प्रासंगिक है। कबीर का काव्य बहुत स्पष्ट और प्रभावशाली है यद्यपि कबीर ने पिंगल और अंलकार के आधार पर काव्य रचना नहीं की तथापि उनकी काव्यानुभूति इतनी उत्कृष्ट थी कि वे सरलता से महाकवि कहे जा सकते है। कबीर पहले व्यक्ति है जिन्होंने विभिन्न धर्मो, संप्रदायों, जातियों, वर्णों को नकार कर ऐसे समाज की स्थापना का प्रयास किया है, जिसमें धर्म, संप्रदाय, ऊँच – नीच के भेदभाव के लिए स्थान नहीं है ….. पीडित, शोषित, अपमानित जन समाज के दुख से जितना सरोकार कबीर का है, भाक्ति काल के अन्य किसी कवि का नहीं है।
इसे भी पढे : – रासो साहित्य
कबीर दास ने किससे क्या ग्रहण किया
(1) माँस भक्षण निषेध एवं जीवों के प्रति दया भाव ——- वैष्णवों से
(2) हठ योग ——— नाथ पंथों से
(3) माया मोह का विरोध एवं अद्धैतवाद ——— शंकराचार्य से
(4) साधनात्मक रहस्यवाद ——– नाथ पंथ से
(5) भावात्मक रहस्यवाद / प्रेम साधना ———— सूफियों से
(6) मूर्ति पूजा एवं बाह्य आडंबरो का खंडन ————- मुसलमानों से
(7) एकेश्वरवाद ————— मुसलमानों से
(8) ज्ञान मार्ग ———– हिंदू धर्म शास्त्रों एवं रामानंद से
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