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एक अनसुनी पुकार

 एक अनसुनी पुकार

 क्यों घूरते हो तुम उसको इस तरह
  सहम जाती है तुम्हें देखकर वो
 भर आती है उनकी आँखें
तुम्हारी जाहिल नजरें देखकर

नजरों से ही तुम उनको 
लहुलुहान कर देते हो
आँखों ही आखों मे तुम
उसको तार तार कर देते हो

दिल उसका भी रोता है
मन उसका भी दुखता है
पर समझा लेती है वो खुदको
इस बेजान समाज को देखकर

काश ! एक दिन ऐसा भी हो 
ना वो 16 दिसंबर वाली कभी बात हो
बेखौफ घूमें वो सड़को पर
ना फिर कभी ऐसी काली रात हो।

और कविता पढ़े :-   एक तलाश  


.... नवनीत सिंह

1 thought on “एक अनसुनी पुकार”

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